पेरिस जलवायु समझौता और अमेरिका का रुख
"बड़ी
ताकत के साथ बड़ी जिम्मेदारी आती है "
यह
पिछले कई दशको से अमेरिका का धयेय वाक्य रहा है।
लेकिन पुरे विश्व को सँभालने की नैतिक जिम्मेदारी ओढ़कर अपनी चौधराहट चलाने
वाला अमेरिका, वर्तमान में विश्व की एक बड़ी समस्या और
अपनी एक बड़ी जिम्मेदारी से पीछे हट रहा है।
दरसल विश्व पर्यावरण दिवस के कुछ दिन पहले ही अमेरिका ने पेरिस जलवायु
समझौते से हटने का निर्णय लिया है।
ग्लोबल
वार्मिंग कम करने के लिए किये गए इस समझौते पर अमेरिकी राष्ट्रपति का कहना है कि
यह समझौता तर्क संगत नहीं है। उनका कहना है कि इस समझौते से भारत और चीन जैसे देशो
को अनुचित लाभ मिल रहा है जिसका प्रभाव अमेरिका पर पड रहा है। अमेरिका का यह मानना
है कि भारत और चीन अगले कुछ वर्षों में अपने कोयले से संचालित बिजली संयंत्रों को
दोगुना कर लेंगे और साथ ही अच्छी खासी वित्तीय सहायता भी प्राप्त कर लेंगे।अमेरिका
फर्स्ट के अपने चुनावी वादे को पूरा करने के लिए अमेरीकी राष्ट्रपति द्वारा लिए गए
इस आर्थिक राष्ट्रवाद के फैसले को जहां उनके समर्थको की सराहना प्राप्त हो रही है
वही दूसरी ओर पुरे विश्व दवारा एक स्वर में इसकी आलोचना भी हो रही है।
अगर
हम इतिहास की बात करें तो जलवायु समस्या से निपटने के लिए सन 1992 को
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा रिओ डी जेनेरिओ में पृथवी सम्मलेन का आयोजन किया। इसी
सम्मलेन में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCC) का
गठन हुआ। इसके गठन का उद्देस्य ग्रीन हाउस गैस को कम करना था तथा इसके सम्मलेन को
कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज (COP) कहा जाता है। इसके बाद सन 1997
में ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल लाया गया परन्तु
इसके ज्यादा प्रभावशाली न होने की वजह से वांछित उद्देस्य की प्राप्ति न हो सकी, जिसके
चलते दिसम्बर 2015 को पेरिस में COP 21 का
आयोजन हुआ जिसमे 2025 तक कार्बन उत्सर्जन 26 से
28 फीसद तक काम करने की सहमति बनी।
आंकड़ों
की बात की जाये तो चीन (27.3%) के बाद अमेरिका (16%) विश्व
के कुल कार्बन उत्सर्जन में दूसरे स्थान में है जबकि भारत का कुल उत्सर्जन में
मात्र 6.8%
के लिए लिम्मेदार है। साथ ही प्रति
व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में भारत का स्थान 20वां
है जो की अमेरिका से 5 गुना कम है। अमेरिकी राष्ट्रपति का यह
कहना कहना भी गलत है कि भारत को 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की
मंजूरी है, सच तो यह है कि भारत अपनी ऊर्जा
आपूर्ति के लिए कोयले पर अपनी निर्भरता कम कर रहा है और अपनी पूरी ताकत नाभिकीय
ऊर्जा, सौर ऊर्जा, वायु
ऊर्जा तथा अन्य नवनीकृत स्रोतों पर लगा रहा है।
वैश्विक
स्तर पर देखा जाये तो अमेरिका के इस कदम का अप्रत्यक्ष फायदा चीन को मिल रहा है, क्युकि
अब वह पर्यावरण के मुद्दे पर शीर्ष पर है, साथ
ही वह अपनी ग्रीन टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री के जरिये अपनी अर्थवयवस्था को मजबुति दे
सकेगा। इन सब की बदौलत वह अपने महत्वकांछी प्रोजेक्ट "one belt
one road" पर कूटनीतिक बढ़त हासिल कर सकता है जो
कि अमेरिका के लिए हानि ही कहा जा सकता है।
लाभ
और हानि की बात की जाये तो कुछ अन्य देशो द्वारा भी इस समझौते से बाहर जाने की
संभावना है पर हाल ही में आये भारत और अन्य अन्य देशो के बयान से यह प्रतीत हो रहा
है कि अमेरिका के अलावा अन्य देश जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर गंभीर और एकजुट है।
अब बात यह नहीं कि अमेरिका पेरिस समझौते में नहीं है बल्कि यह है की आगे क्या किया
जा सकता है। अब अन्य देशो को चाहिए की वे अपनी जिम्मेदारी को और बढ़ाते हुए एकजुट
रहें क्युकि किसी एक देश के बहार होने से समझौते में फर्क नहीं पड़ता है और भारत को
भी इसे एक अवसर के रूप में लेकर विश्व में अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहिए।
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