छत्तीसगढ़ी विवाह संस्कार

अन्य सभी संस्कारो में विवाह संस्कार का छत्तीसगढ़ में अपना अलग ही है। पुराने समय की बात कि  जाये तो छत्तीसगढ़ में विवाह का कार्यक्रम पांच दिनों का होता था और आज भी कई जगह यह परम्परा जारी है। इन पांच दिनों में विभिन्न प्रकार के रस्मो  को पूरा किया जाता है। आइये इन रस्मो के बारे में कुछ चर्चा की जाये :

चुलमाटी की रस्म 

पहले दिन चुलमाटी की रस्म पूरी की जाती है।  इस रस्म की अपनी विशेष और आध्यात्मिक महत्व है। यह रस्म  कुंवारी मिट्टी लाकर की जाती है। घर की स्त्रियाँ ढेड़हीन (सुवासिन ) नए वस्त्र पहनकर देवस्थल या जलाशय के पवित्र स्थान में जाकर सब्बल से मिट्टी खोदने की रस्म पूरी की जाती है। 
                                                                                                                         चुलमाटी के साथ ही शुरू होता है तेल  हल्दी  का कार्यक्रम जिसमे घर के आँगन में बांस बल्ली गाड़कर मड़वा बनाया जाता है जहा कलश की स्थापना कर वर या वधु को तेल हल्दी का लेप लगाया जाता है।  इस मौके पर खास लोक गीत -"एक तेल चढ़गे ओ  हरियर -हरियर , ओ  हरियर -हरियर  " गाया जाता है। 

मायन 

इस रस्म में वर को परदे के आड़ में रख कर सगे सम्बन्धियों  द्वारा वस्त्र , द्रव्य और सामग्री भेट करते है। इस अवसर पर जो लोक गीत गए जाते है उसे मायमौरी  कहते है। इस गीत का महत्व यह होता है कि  जाने अनजाने में हुई गलती उसे माफ़ करते हुए देवी देवता एवं कौटुम्बिक पूर्वज निमंत्रण स्वीकार कर मंगल कार्य को अच्छे से पूरा करा दे। "हाथे जोरि न्यौतेव मोर देवी देवाला "
                                                                         इसी दिन मायन के बाद देवताला की रस्म पूरी की जाती है। बारात प्रस्थान के पूर्व वर मंगल कामना के लिए देवी देवताओ की पूजा अर्चना के लिए देवालय जाया जाता है। इस रस्म में केवल महिलाओ की हिस्सेदारी है। छत्तीसगढ़ी बिहाव में हरदियाही कार्यक्रम होता है , इसे चिकट भी कहा जाता है। इसमें मड़वा के नीचे सभी व्यक्ति हल्दी के रंग में रंग जाता है। इस अवसर में गए जाने वाला गीत है : "अंचरा के छाव दाई मोला देबे देवऊ भउजी अंचरा के छाव "

नहडोरी 

इस अवसर पर वर या वधु को मड़वा के नीचे स्वच्छ जल से स्नान करवा कर नए वस्त्र पहनाये जाते है।  इस अवसर पर मउर  सौपने और कंकन बाँधने की रस्म पूरी की जाती है। स्त्रियाँ गीत गति है : "दे तो दाई दे तो दाई अस्सी ओ रुपइया "
                          जब बारात प्रस्थान होता है तो परछन की रस्म पूरी की जाती है। महिलाये वर को नजर और बाहरी आपदाओं से बचाने के लिए कलश में जलते दीपक से आरती उतारती है। यही क्रिया बारात वापसी में भी दोहराई जाती है : "जुग जुग जीवो मोर बेटा , बहुरिया जनम जनम हेवाती  हो "
                                                                                                                बाराती जब बारात लेकर वधु के घर पहुंचते है तो उन्हें परघाया जाता है , जिसे परघनी कहते है।  परघनी के बाद बारातियो को जेवनास ले जाया जाता है , इस अवसर पर भड़ौनी गीत गया जाता है : "बड़े बड़े तोला  जानेव  समधी मड़वा म  डारेव बांस रे "
                                                                           इन सब के बाद लालभाजी की रस्म पूरी की जाती है जिसमे वधु की छोटी बहन वर को लालभाजी खिलाती है। यह रस्म भी व्यंग और हास्य से भरपूर है। इसमें गाये जाने वाला गीत : "करिया करिया दिखथस दुलरु  काजर कस नइ  आंजे  रे "

भांवर 

बिहाव संस्कार की महत्वपूर्ण क्रिया है। इस रस्म के साथ वर वधु पूर्ण रूप से परिणय सूत्र में बंध जाते है। मड़वा  के नीचे सील रखकर उसमे सिंघोलिया रखा जाता है तथा बेदी की अग्नि को साक्षी मानकर मंत्रोचारण के साथ भांवर घूमकर वर वधु जीवन भर साथ निभाने की शपथ लेते है : "जनम जनम गाँठ जोरि दे "

टिकावन 

फिर होता है टिकावन का कर्यक्रम। विवाह में आये परिजन अपनी शक्ति के अनुरूप टिकावन के रूप में उपहार देते है। इसके बाद विदाई की रस्म होती है यह बहुत करुणामय कार्यक्रम होता है। 

Comments

  1. Haman la bahut achha lagis ye Sadi ke gana aau vichar ha

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  2. Bahut accha he moha to project me ihila likhe ho

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    1. hamko bhi wo project bhej sakte ho kya badi meharbani hogi apki 🙏

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