संसदीय लोकतंत्र में विशेषाधिकार एवं इसका संहिताकरण

विशेषाधिकार से हमारा तातपर्य किसी व्यक्ति या वर्ग के लिए विशेष अधिकार से है  जो कि लोकतन्त्र में एक विरोधाभास है। लोकतंत्र में विशेषाधिकार एक ऐसी स्थिति को दर्शाता है जहाँ सैद्धांतिक रूप से समानता को स्वीकार किये जाने के बावजूद किसी न किसी सन्दर्भ में विशेषाधिकार को अपनाया गया है। भारत के इतिहास में झाँक कर देखा जाये तो राजा और सामंतों के समय से ये विशेषाधिकार अस्तित्व में है  जो आज भी संसदीय विशेषाधिकार के रूप में है। ये विशेषाधिकार कितने सही और कितने गलत है यह एक चर्चा का विषय है।  हाल ही में कर्नाटक विधानसभा द्वारा इसी विशेषाधिकार से दो पत्रकारों को 1 साल की कैद और आर्थिक जुर्माना लगाने के बाद यह विषय पुनः चर्चा में आ गया है कि विशेषाधिकार की सीमा क्या है ? संसदीय विशेषाधिकार क्या है ?यह किस प्रकार के अधिकारों का दमन करती है। 

संसदीय विशेषाधिकार : 

संसद के निर्बाध सञ्चालन के लिए संविधान द्वारा इसके सदस्यों को कुछ शक्तियां और विशेषाधिकार सौंपा गया है। अनुच्छेद 105 और 194 क्रमशः संसद और राज्य विधानमंडलों के लिए ऐसे अधिकारों का प्रावधान करती है। इन विशेषाधिकारों के द्वारा संसद तथा विधानमंडल सदस्यों को कुछ मामलो में न्यायालीय प्रक्रियाओं से राहत दी गयी है साथ ही उन्हें विशेषाधिकार उल्लंघन में दोषी को दण्डित करने का भी अधिकार दिया गया है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस शक्ति को सीमित कहा गया है साथ ही न्यायालिक विचार के अंदर बताया है।  

जहाँ तक आलोचकों की बात की जाये तो उनके द्वारा विशेषाधिकार को समाप्त करने की मांग नहीं की गयी है बल्कि उसके संहिताकरण( codification ) की मांग की जाती रही है। कई बार विधानमंडल द्वारा अपनी आलोचना दबाने के लिए इस शक्ति के दुरूपयोग के उदाहरण मिलते है। इस शक्ति का उद्देशय संसद/विधानमण्डल को अपनी कार्यवाही में आने वाली बाधा को समाप्त करना है न कि अपनी आलोचना के समक्ष बाधा उत्पन्न करना। बिना किसी निश्चित कोड के यह पता करना संदिग्ध ही है कि वास्तव में विशेषाधिकार का हनन हुआ भी है या नहीं। भारत की सम्प्रभुता भारत की जनता में है न कि निर्वाचित सदस्यों में इस कारण से भी इस शक्ति की आलोचना होती है। भारत में विधि का शासन  लागु है अर्थात सब सामान विधि से संचालित होते है फिर विधायिका के सम्बन्ध में कोई अपरिभाषित कानून क्यों रखा जाये इसे परिभासित किया  जाना ही सही कदम होगा। 

एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति या संस्था आलोचना से निरापद  नहीं है। लोकतंत्र का स्तंभ ही समानता है इसलिए लोकतंत्र की प्रतिनिधि संस्थाओं को अपनी आलोचना को बाधित करना शोभा नहीं देता। यह उचित है की किसी के द्वारा दुर्भावनापूर्वक इसकी गरिमा को ठेस पहुचाये तो उसे दण्डित किया जाये पर यह संरक्षण असीमित नहीं होना चाहिए। अभी देखा जाये तो विशेषाधिकार हनन विधानसभा द्वारा तय किया जाता है और यह निरंकुश प्रवृत्ति को जन्म देती है जब तक की इसे संहिताबद्ध न कर लिया जाये।  

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