छत्तीसगढ़ी लोक गायक : मुण्डा समुदाय

                                     मुण्डा समुदाय का अस्तित्व चालुक्य राजाओ के समय से बस्तर के इतिहास में रहा है। आज भी बस्तर के दशहरा पर्व के प्रमुख विधानों में मुण्डा गायको के द्वारा मुण्डा गीतों का वादन गायन होता आ रहा है। फूल रथ गाथा विजय रथ के सामने हो या मावली परघाव हो या फिर दंतेश्वरी माई के विदाई का विधान हो मुण्डा गायको को सर में पगड़ी बांधे , दस से बीस लोगो का दल , थिरकते झूमते , रंग बिरंगी परिधानों से सुसज्जित अपने हाथो में डमरूनुमा वाद्ययंत्र लेकर , हाथो से ताल देते , तालबद्ध गीतों के माध्यम से देवी की वंदना गाते देखा जा सकता है। 

वर्तमान में जगदलपुर से 13 किलोमीटर दूर पोटानार में इनका बसाव है। कहा जाता है कि इनके पूर्वज झारखण्ड से यहाँ आकर बस गए और राज घरानो के संपर्क में आकर राजाओ का यशगान करने लगे। इनके  द्वारा उपयोग में लाये जाने वाला डमरूनुमा वाद्ययंत्र को मुण्डाबाजा कहा जाता है और गाये जाने वाले गीतों को मुण्डागीत कहा जाता है। झारखण्ड में इनकी जाति मुण्डा होने के कारण आज भी ये मुण्डा कहलाते है। पूर्वज बिरसामुण्डा के परिवार से है और पूर्व में आकर आरापुर नामक ग्राम में बस गए। झारखण्ड में इनकी भाषा मुण्डारी थी पर कालांतर में बस्तर में बस जाने कि वजह से यहाँ की लोक भाषा हल्बी को अपना लिया। आज इनकी सभी रोटी बेटी का सम्बन्ध बस्तर में ही है। बस्तर में इनकी बसावट पोटानार , आगामुडा तथा आंवराभाटा में है। 

बस्तर की प्रथम कृति बस्तर भूषण  के लेखक केदारनाथ ठाकुर ने इसमें लिखा है कि मुण्डा अर्थात मंगन जाति के लोग पूर्व में मुण्डाबाजा बजाकर अश्लील गाना, रथ के सामने गाते चलते थे जिसमे गंदे शब्दों का प्रयोग होता था , इसे गीत न कहकर भद्दी गालिया ही कहा जा सकता है। इन  गीतों को भाण्ड गीत  कहा जाता था। राजा की आज्ञा से निशा जात्रा तथा मावली गीत का गायन बंद कर दिया गया। मुण्डा गायको का कहना है कि परिवेश में इस तरह के गीत नहीं चलते है। 

मुख्यतः मुण्डा समुदाय को तीन शाखाओ में बांटा जाता है : मानचार मुण्डा , अनाज मुण्डा और सुग्रीव मुण्डा। ये बाघ तथा नाग वंश के साथ पारिवारिक सम्बन्ध बनाना पसंद करते है। ये हिंगलाजिन माता तथा परदेशीय माता की पूजा करते है। इनकी इष्ट देवी ऋषि मावली है जो माई दंतेश्वरी देवी का ही स्वरुप है ऐसा माना जाता है तथा वर्ष में एक बार बलि देकर समुदाय का जातरा का वार्षिक आयोजन पूर्ण करते है। प्रारंभिक दौर में इनके वाद्य का स्वरुप भिन्न था, कहा जाता है कि रूखी नामक मिट्टी के पात्र पर मेंढक के चर्म आच्छादित वाद्य को दो अंगुलियों के सहारे वादन  किया जाता था। फिर किसी व्यक्ति द्वारा लकड़ी की बड़ी आकृति पर बकरे के चर्म से इसे बनाया गया जो आज तक चला आ रहा है।  सिवना नामक कोमल लकड़ी पर जो चर्म लगाया जाता है वह चर्म दशहरा पर्व में निशा जात्रा के दौरान बलि दिए जाने वाले बकरो का होता है। 

वर्तमान में मुण्डा गायक , गायन के साथ साथ खेती भी करते है। कई अवसरों में इन्हे शासकीय योजनाओ के प्रचार प्रसार के लिए भी आमंत्रित किया जाता है। अपने विशिष्ट वादन के लिए चर्चित इन कलाकारों को कई स्थानों में प्रस्तुति के लिए भी बुलाया गया है।  26 जनवरी के अवसर पर मुण्डा वादकों ने राजपथ दिल्ली में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा जी के समक्ष प्रस्तुति दी थी। 

चालुक्य राजा वीरसिंह के समय का एक मिथक प्रचलित है जिसमे राजा ने चूडामण नामक दीवान को भेजी के जमींदार पर हमला करने भेजा था।  जमींदार के जगराज और मतराज नामक दो भाई थे जिन्होंने छल बल का प्रयोग करके चूडामण और उसकी सेना को परास्त किया और रण छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया , तब से मुण्डा समुदाय के लोग चूडामण गीत गाने लगे। 

Comments

Popular posts from this blog

छत्तीसगढ़ी विवाह संस्कार

बस्तर नृत्य नाट्य : माओपाटा

छत्तीसगढ़ का इतिहास_भाग :1